बाबा दास विजय जी

बाबा दास विजय जी का जन्म 2 मई 1954 को पंजाब राज्य के लुधियाना शहर में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना में ही हुई थी। यहाँ बी.ए. प्रथम वर्ष तक शिक्षा प्राप्त की, उसके पश्चात् 30 मार्च 1975 को विजय जी इंग्लैण्ड चले गये। वहाँ कड़ा परिश्रम किया। सन् 1985 में इनके किसी जानकार ने इनसे महाराज दर्शन दास जी के विषय में कहा कि एक बहुत पहुँचे हुए संत आए है आप भी दर्शन कर लो। आप उस समय किसी संतमत में विश्वास नहीं करते थे। शराब इत्यादी का सेवन भी करते थे। इसलिए ये महाराज दर्शन दास जी के पास नहीं गए। किन्तु इनके मित्रा के बार-बार आग्रह करने पर ये चले, जब ये महाराज जी के पास पहुँचे तब तक सत्संग समाप्त हो चुका था और महाराज जी लोगों के कष्टों का निवारण कर रहे थे। महाराज जी के कौतुक से दास विजय जी हैरान हुए कि ये कोन सा जादू कर रहे हैं जो लोगों के दुख पल में दूर हो रहे हैं। उस समय दास विजय जी की धर्मपत्नी के गुर्दों में परेशानी थी और बहुत ईलाज के बाद भी वे ठीक नहीं हो पा रही थी। जब इन्होंने महाराज जी से उनके विषय में बात की तो महाराज जी ने इनको प्रसाद दिया और बताया कि बचपन में इनकी पत्नी को किसी कुछ खिला दिया था इसी कारण ये परेशानी है, काई बात नहीं नानक पातशाह सब मेहर करेगें, सब ठीक हो जायेगा, और सच में महाराज जी के कथनानुसार बाबा जी की पत्नी एक-दम ठीक हो गई। उसके बाद दास विजय जी महाराज जी के करीब आते गए। अब अक्सर उन्हीं के क्षेत्रा में सत्संग होने लगे, तब ये और अधिक जुड़ गए। महाराज जी ने उन्हें लंदन के एडमिन्टन कमैटी का प्रोपगेन्डा सचिव बना दिया, आगे चलकर वे राज्य सचिव भी बने। महाराज जी का प्यार भी मिलता था तो डाँट भी।

इनका एक शराब का ठेका था जिसे वे बेचना चाहते थे परन्तु महाराज जी ने उसे तब तक नहीं बेचने दिया जब तक फायदा नहीं हुआ।

एक बार इन्होंने सोने का व्यापार करने के लिए कहा तो महाराज जी ने कहा सोेने का व्यापार करेगा तो हमें भूल जाएगा, इस पर बाबाजी ने वह व्यापार नहीं किया। बस इतना वरदान मांगा की मुझे कोई पैसा नहीं चाहिए ना ही बैंक बैलेस बस इतना हो कि मेरा कोई काम ना रूके, हुजूर ने उसका आशीर्वाद दे दिया। तब से आज तक इनका कोई कार्य नहीं रूका और न ही रूहानी सफर में कोई रूकावट आई।

11 नवम्बर 1987 को महाराज जी की शहादत के बाद इन्होंने अपनी डयूटी पूर्ण निष्ठा के साथ निभाई। इसी कर्मठता के चलते 15 अगस्त, 1997 को इन्हें बाबाजी की उपाधी से नवाजा गया। उसके बाद से ये लगातार यू.के. में सत्संग इत्यादी करते रहे हैं।

काल का कुछ पहर ऐसा भी आया कि इन्होंने डयूटी छोड़ दी तथा घर बैठ गए। परन्तु सच्चा सेवक गुरू से कभी दूर नहीं रह सकता। कुछ ही समय में इनकी मुलाकात महाराज चड़विन्दादास तीर-तरक्कड़ी जी से हो गई, गुरू प्रेम के अंकुर फिर फूटने लगे, महाराज जी के सनिध्य में इन्होंने डयूटी करने की इजाजत मांगी, उस समय तो महाराज जी ने इंकार कर दिया। बीच-बीच में ये महाराज जी से डयूटी के कहते रहे, आखिर कई बार की विनतियों के बाद इन्हें यूरोपिय देशों में सत्संग करने की डयूटी लगा दी, जिसे ये पूर्ण समर्पण भाव से करते आ रहे हैं। तीन-चार महीने के अंतराल पर भारत में आकर भी ये डयूटी करते हैं। आज पूर्ण रूप से सतगुरू दर्शन धाम के सेवक हैं।