दास बाबा दीनानाथ जी
दास बाबा दीनानाथ जी (पूर्व नाम दास बलदेव) का जन्म 6 अगस्त, 1959 को बटाला में एक गरीब परिवार में हुआ। इनके पिता स्व. श्री मोहन लाल जी थे व इनकी माता जी का नाम श्रीमति सुमित्रा देवी है। इनका जीवन शुरू से ही संघर्षों से भरा रहा। ये प्रारम्भ से ही धार्मिक प्रवृति के तथा संकोची स्वभाव के थे। अपने मन की बात सहज ही किसी को नहीं बताते थे।
इन्होंने सन् 1975 में मैट्रिक कक्षा की परीक्षा दी थी, उन्हीं दिनों ‘हुजूर महाराज दर्शन दास जी’ का प्रभाव पूरे ‘बटाला’ शहर व उसके आस पास के क्षेत्रों में फैला हुआ था। उस प्रभाव के वशीभूत हो इनका मन ‘महाराज जी’ से मिलने को हुआ और ये ‘डेर’े में ‘हुजूर’ से मिलने चले गये। जब ये वहँा पहुँचे तब सत्संग चल रहा था अतः इन्हें सबसे पीछे बैठने का स्थान मिला। सत्संग की समाप्ति पर ‘हुजूर’ ने इन्हें नाम लेकर सबसे पहले ही अपने पास बुला लिया और पूछा ‘क्या परीक्षा में पास होना चाहते हो’? तो इनका उत्तर था ‘हाँ’। ‘हुजूर’ ने पूछा कि परीक्षा के वक्त, तुम्हारे पेन में से, स्याही की एक बूंद तुम्हारे पेपर पर गिरी थी, उस समय हम तुम्हारे साथ ही थे’। इनका मन आश्चर्य से भर गया। ‘हुजूर’ ने इन्हें पास होने का आशीर्वाद दिया तथा साथ ही कहा, कि तुम ‘बी.ए.’ भी कर लो। ‘बी.ए.’ की पढ़ाई के बीच में ही 3 महीने नोली ‘डेरे’ में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। ‘बी.ए.’ पास करने के उपरान्त इन्होनें हुजूर से नौकरी करने का आशीर्वाद चाहा, परन्तु ‘हुजूर’ ने कहा, ‘‘तुम्हें नौकरी यहीं करनी है, हमें तुम्हारे जैसे पढ़े लिखे युवकों की ही आवश्यकता है’’। अतः ये ‘हुजूर’ की सेवा में लग गये। इनका विवाह दास प्रवेश रानी के साथ हुआ तथा इनके 1 सुपुत्र व 3 पुत्रियां है। इनकी सेवा के फलस्वरूप ‘हुजूर’ ने 16 फरवरी 1980 को इन्हें ‘रब्बी सेवा’ का वर प्रदान किया।
इस सफलता के 17 वर्ष पश्चात् नवम्बर 1997 को ‘हुजूर महाराज जी’ के साथ इनका स्वप्न द्वारा साक्षात्कार हुआ। कथनानुसार हुजूर कमल के फूल पर विराजमान थे; उन्होंने इनके हाथ में मोली बांधी, माथे पर तिलक के लिए अगूंठा रखा तो इन्हें अहसास हुआ कि जैसे इनकी पूरी काया पलट हो गई हो, इन्हें लगा जैसे इनके अंग-अंग में शक्ति भर गई हो, परन्तु इन्हें यह मालूम नहीं पड़ा कि महाराज ने इनके साथ किया क्या? लगभग एक दिन पश्चात् 29 नवम्बर, 1997 को ‘महाराज चड़विन्दादास तीर-तरक्कड़ी जी’, जब ‘बटाला’ में सत्संग के लिए गये, तब कुछ सेवकों के द्वारा, इन्हें घर से बुलावा लिया और हँस कर पूछा, ‘‘क्यों बलदेव, आपको महाराज जी मिले थे’’ तब इन्होंने कहा कि, ‘‘हाँ’’ मिले थे, तब ‘‘महाराज चड़विन्दादास तीर-तरक्कड़ी जी’’ ने पूछा कि ‘हुजूर महाराज जी’ ने क्या किया? और क्या कहा? तब इनका उत्तर था कि जब आपको यह सब कुछ मालूम है, तो यह भी पता होगा कि ‘हुजूर महाराज जी’ ने मेरे साथ क्या किया? अच्छा तो यह होगा कि आप स्वयं ही सारा वृतांत बताएं। तब ‘महाराज चड़विन्दादास तीर-तरक्कड़ी जी’ ने कहा कि, ‘‘जो हुजूर महाराज जी ने किया व कहा है अब उस कार्य का समय आ गया है अर्थात अब आप रब्बी सेवा करो’’ तथा हुजूर महाराज ने जो कहा व किया वह सारा वृतांत ‘महाराज चड़विन्दादास तीर-तरक्कड़ी जी’ ने उनको अक्षरक्षः सुनाया।
27 दिसम्बर, 1997 को दिल्ली में ‘दास बलदेव जी’ को ‘तिलक’ कर ईश्वरीय घर से उन्हें ‘‘दीनानाथ जी’’ नाम तथा ‘बाबा जी’ की पदवी प्रदान की गई। उन्हें सत्संग करने व गद्दी भुगताने का हक भी प्रदान किया गया। अब दास बाबा दीनानाथ जी सतगुरू दर्शन धाम के अन्तर्गत सत्संग व गद्दी की सेवा कर रूहानी रहमत को मानव जगत में बांट रहे हैं, तथा मानवता की सेवा कर रहे हैं।